पूरे जीवन की सम्पत्ति को बोरे में बाँधकर
अपनी इच्छा अरमानों की बलि चढ़ाते हुए
दूध मुंहे बच्चे को गोद में लेकर
पत्नी के साथ एक श्रमिक ने घर वापसी के लिये
राज मार्ग पर
जैसे ही अपने पाँव आगे बढ़ाए
कानून के प्रहरी ने दिखाया एक डंंडा
पूछा कहाँ जा रहे हो
मालूम नहीं लॉक डाउन का जमाना है
घर छोड़ बाहर नहीं जाना है
थोड़ा ठिठककर थोड़ा सहमकर
झिझकते हुए श्रमिक बोल उठा
घर ही तो जा रहा हूँ
पूछा प्रहरी ने
नहीं, नहीं
बताओ, शहर में कहाँ रहते हो
श्रमिक ने जवाब दिया
पूछते हो, रहता कहाँ हूँ ?
यहाँ मेरा कोई अता पता नहीं
जहाँ काम मिले वहीं रहता हूँ
वही मेरा पता है
जो कुछ मिले खा लेता हूँ
मिट्टी शय्या पर सो जाता हूँ
काम तुमने बंद कर दिया
मेरा ठिकाना भी खत्म हो गया
अब बताओ तुम्हीं मैं क्या करूँ
कहा आरक्षी ने
कहते तुम ठीक हो
पर कोरोना का आतंक है
जान तो बचाना है
सिमटकर रहोगे तो
खुद भी बचोगे
दूसरों को भी बचाओगे
लोग रहें सेहत मंद
इसलिये गाड़ियाँ भी हैं बंद
आगे मुसीबतों का पहाड़ है
हे श्रमिक श्रेष्ठ, लौट जाओ
श्रमिक चिल्लाया
कहाँ लौटूँ , कैसे लौटूँ
तुम्हीं बताओ कैसे लौटूँ
पेट में अन्न नहीं
शरीर में चर्बी नहीं
पॉकेट में पैसे नहीं
बैंक में बैलेंस नहीं
तन पर कपड़ा नहीं
सर पर छत नहीं
तुम्हीं बताओ कैसे लौटूँ
हे प्रहरी रोको मत, जाने दो
माना कि शहर में जहर है
मार्ग में कहर है
संकट अपार है
पर मुझे भी भरोसे की छत की दरकार है
अपने गाँव पहुँचूँगा
भरोसे की छत मिलेगी
भरोसे की हवा होगी
भरोसे का पानी होगा
भरोसे का अन्न होगा
भरोसे की मिट्टी का लेप लगाऊँगा
सभी दुख दर्द हवा हो जायेंगे
तब बीमार भी पड़ूँगा
तो संबंधों की शय्या पर लेटकर
सब दुःख झेल जाऊँगा
अगर कहीं बच न भी पाया तो
भरोसे की मिट्टी में मिल जाऊँगा
दशरथ की संतान हूँ मैं
नून रोटी खाऊँगा
पर घर वापस जरूर जाऊँगा
घर वापस जरूर जाऊँगा