बिहार की आवाज़
आइए, हवा का रुख बदल दें
कल ट्रेन भर – भर कर जाती थीं
आज ट्रेन भर – भर कर आयी हैं
और कल ट्रेन भर – भर कर जाएँगी
पर उनमें अब लोग न होंगे
होंगी केवल ज्ञान की पोटरियाँ
अन्न, फल और सब्जियाँ
अंडे, वस्त्र और मछलियाँ
आइए, हवा का रुख बदल दें।
विजय प्रकाश
बिहार की आवाज़
बिहार की आवाज़
आइए, हवा का रुख बदल दें
कल ट्रेन भर – भर कर जाती थीं
आज ट्रेन भर – भर कर आयी हैं
और कल ट्रेन भर – भर कर जाएँगी
पर उनमें अब लोग न होंगे
होंगी केवल ज्ञान की पोटरियाँ
अन्न, फल और सब्जियाँ
अंडे, वस्त्र और मछलियाँ
आइए, हवा का रुख बदल दें।
विजय प्रकाश
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बिहार की आवाज़
आइए, हवा का रुख बदल दें
कल ट्रेन भर – भर कर जाती थीं
आज ट्रेन भर – भर कर आयी हैं
और कल ट्रेन भर – भर कर जाएँगी
पर उनमें अब लोग न होंगे
होंगी केवल ज्ञान की पोटरियाँ
अन्न, फल और सब्जियाँ
अंडे, वस्त्र और मछलियाँ
आइए, हवा का रुख बदल दें।
विजय प्रकाश
बिहार की आवाज़
बिहार की आवाज़
आइए, हवा का रुख बदल दें
कल ट्रेन भर – भर कर जाती थीं
आज ट्रेन भर – भर कर आयी हैं
और कल ट्रेन भर – भर कर जाएँगी
पर उनमें अब लोग न होंगे
होंगी केवल ज्ञान की पोटरियाँ
अन्न, फल और सब्जियाँ
अंडे, वस्त्र और मछलियाँ
आइए, हवा का रुख बदल दें।
विजय प्रकाश
चर्मकार
हम चर्मकार हैं ,
दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं। हम कर्मकार हैं , व्यर्थों में भी अर्थ ढूँढते रहते हैं
तुम तो नर को कंधा देकर नामों निशाँ मिटा देते
पशुओं को कंधा दे हमअमृत पान कराते रहते हैंं
हम जीवों की अर्थी में भी नव अर्थ ढूँढते रहते हैं
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
सदियों तक शोध किया हमने अस्थि मज्जा का मंजन कर
रसायनों का लेप लगा चर्मों पर उनका भंजन कर
चर्मों को अमृत पान करा हम अमर बनाते रहते हैं
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
चमड़े को काटा पीटा उनको विविध आयाम दिया
हर पैरों के अनुरूप उन्हें जूते का आकार दिया
हर जन के पैरों की रक्षा का हम चक्र बनाते रहते हैं
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
कितनी ही कठिन परिस्थिति हो कितनी ही भीषण पीड़ा हो
पर्वत की शीतलहरी हो या मरुभूमि की उष्मा हो
हर तापमान हर मौसम से रक्षा कवच बनाते रहते हैं
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
चाहे कोई भी मज़हब हो चाहे कोई भी पेशा हो
राजा हो या सैनिक हो कोई धावक या वैज्ञानिक हो
हम सभी जनों की सफलता की नयी कहानी गढते हैं
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
क्या कहूँ इस सृजन मार्ग में कितनी पीड़ा झेली अपमान सहे
बदबू के सागर में डूबे कितने घावों से पीब बहे
इन कष्टों के बावजूद निरंतर जन सेवा में रहते हैं ।
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
बच्चा जब जनमता है पहला स्वागत हम ही करते हैं
हमारे हाथों में ही वह पहला जग दर्शन करता है
हर माँ की पीड़ा हरने को दिन रात समर्पित रहते हैं
हम चर्मकार हैं , दुनिया का दुःख दर्द मिटाते रहते हैं।
विजय प्रकाश
सृजनवादी गीत
हम शिक्षु हैं सृजनवाद के हमें सदा ही बढ़ना है
नई सोच और नई दिशाएँ हर दिन नित पल गढ़ना है
देख के चीजें आस-पास की, हम इसकी पहचान करें
क्या होता है, कैसे क्या हो, इसका हम अनुमान करें।
उत्तर देते आये अब तक , प्रश्न हमें अब करना है।
हम शिक्षु ————————————————–
कण-कण में जो राज छिपा है इसका तो हम ज्ञान करें
नई कल्पना, नये प्रयोगों का हम स्वतः प्रमाण करें।
पाठों को हम रटना छोड़ें, स्वाध्याय अब करना है।
हम शिक्षु ————————————————————
इन्द्रियों पर संयम रखकर मन को हम एकाग्र करें
सत्य अहिंसा का पालन कर अपना आत्म-विकास करें
पुस्तक से आगे बढ़कर अब, योग साधना करना है।
हम शिक्षु ————————————————————
धर्म-जाति का भेद भुलाकर कर्मों का सम्मान करें
शान्ति-प्रेम का वाहक बनकर जन-जन का कल्याण करें।
समता के तो हम हैं साधक, नया विश्व अब रचना है।
हम शिक्षु ——————————————————————-
* स्कूल ऑफ क्रिएटिव लर्निग एवं अन्य सृजनवादी केन्द्रों पर नियमित रूप से गाए जाने वाला मेरे द्वारा लिखित गीत।
सूर्य को अर्घ्य
-
चार दिनों के कठोर तप के बाद
गंगा के पानी में खड़ा होकर
माँ ने छठ घाट पर सबको
जब सूर्यदेव को अर्घ्य देने को कहा
तो आधुनिक विज्ञान पढ़नेवाला
ईश्वर विरोधी बच्चा चिल्लाया ‘नहीं देता अर्घ्य’ ।
उसने चुनौती के अंदाज में कहा
हे सूर्यदेव, बताओ तुम्हें देव क्यों कहूँ ?
क्यों करूँ तुम्हारी पूजा?
तुम्हारे लिए अर्घ्य क्यों?
मेरे लिए क्यों नहीं?
अणु परमाणु से बना संसार
सब तो हैं एक समान
सब की संरचना समान
हम तुम भी हैं एक समान
तुम भी प्रोटोन, न्युट्रॉन और इलेक्ट्रॉन
मैं भी प्रोटोन, न्युट्रॉन और इलेक्ट्रॉन
क्यों नमन हो तुम्हारा
क्यों न नमन हो हमारा
तुम्हारे सम्मान में क्यों नदी नाले की हो साफ सफाई
क्यों घाट बाट की साज सज्जा
ऐसी विषमता क्यों
तुम्हारी यह दादागिरी क्यों ?
मैं नहीं मानता तुम्हें देव
मेरा मन नहीं मानता तुम्हें देव।
सूर्य बोल उठा
वत्स,ठीक है तुम्हारा कहना
एक सी है हमारी संरचना
बने सभी अणु परमाणु से
सबमें प्रोटोन, न्युट्रॉन और इलेक्ट्रॉन का ही है जाल
पर एक बड़ा अंतर है
तुम सदैव अपने लिए सोचते हो
अपने लिए करते हो
पर मैं अहर्निश दूसरों के लिए सोचता हूँ
दूसरों के लिए करता हूँ
सदैव चलता रहता हँू
कभी रूकता नहीं
कभी सोता नहीं
कभी आराम करता नहीं
सब करता हँू
दूसरों के लिए
मेरा जीवन उत्सर्ग है दूसरों के लिए
बच्चे ने कहा क्यों बाँगते हो
तुम भी तो रात को सोने चले जाते हो
सूर्य ने कहा
नहीं दोस्त रात दिन तो तुम्हारे लिए हैं
मेरे जीवन का बस एक ही अर्थ है चरैवेति चरैवेति
मैं कभी रूकता नहीं कभी थकता नहीं
सुबह हो या शाम
दिन हो या रात
गर्मी हो या बरसात
हर क्षण हर मौसम
बस चलना ही है मेरा काम।
हर क्षण अपने शरीर को जलाता हूँ
गलाता हूँ
मेरे परमाणु मिट जाते हैं
और बनाते हैं फोटोन
जिन्हें भेजता हूँ धरती पर
कण-कण को ऊर्जान्वित करता हूँ
इसी से पृथ्वी पर जल है
जंगल है
फूल हैं
फल हैं
खेत है
खलिहान है
पहाड़ है
खदान है
इसी से प्रकृति का हर कोना गतिमान है
इसी से जन जन के चेहरे पर मुस्कान है
मेरे पास सम दृष्टि है
मेरे लिए सब समान हैं
जन हो या निर्जन
खग विहग हो या वन
जल हो या थल
गरीब हो या अमीर
राजा हो या रंक
मेरी रश्मियाँ सबके लिए समान हैं
मेरी रश्मियाँ बिमारियों में रामबाण हैं
मेरे पास अहं नहीं,
वहं नहीं
पर दुष्टों के लिए रहम नहीं
सूर्य कहता जा रहा था
मानव मानव रहता है
जब अपना अपना करता है
मानव देव हो जाता है
जब दूसरों के लिए गलता है
पर बच्चे की उत्सुकता का कोई अंत नहीं था
पूछ बैठा माना कि तुम हमसे अलग हो, देव हो
पर यह अर्घ्य क्यों?
मम्मी सुन रही थी उसने बताया
मै बताती हूँ कि अर्घ्य क्यों?
अर्घ्य आभार है सूर्य के प्रति
उसके त्याग का
निष्ठा का
समर्पण का
अर्घ्य प्रदर्शन है
सौर ऊर्जा के उपयोग से बनी जीवनदायिनी सामग्रियों का
फल फूल सब्जियों का
अग्नि से बने पाक पकवान का
अर्घ्य आश्वासन है सूर्य को
उसके द्वारा बनाए गए प्राकृतिक संपदा
जल, थल और वायु को स्वच्छ, संरक्षित और सुरक्षित रखने का
अर्घ्य आराधना है
भविष्य की सुरक्षा हेतु अपने परिजनों के लिए
देश और विश्व के बन्धुओं के लिए
समस्त जनबल और पशुबल के लिए
अर्घ्य प्रार्थना है सभी जीवनदायिनी शक्तियों का
जीवन के आधार को सतत गतिमान रखने के लिए
अर्घ्य संकल्प है मानवीय एकजुटता का
रंग, जाति, धर्म और देश की सीमाओं से परे
प्राकृतिक शक्तियों के साथ खड़े होने का
अर्घ्य प्रतीक है
प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व का
सहचरी का
सहजीवन का
माँ की वाणी कठोर हो गयी थी
उसने चेतावनी के अंदाज में कहा
याद रखो जबतक सूरज चलता है
तभी तक मानव जिंदा है
बच्चे और माँ आपस में उलझे थे
पर सूर्य चला जा रहा था
अपने शास्वत अंतहीन कर्त्तव्य पथ पर
त्याग के
तपस्या के
निष्ठा और समर्पण के ।
बच्चा अवाक था
निरुत्तर था
सहसा बड़बड़ाने लगा
माँ मैं भी देव बनूँगा
माँ मैं भी देव बनूँगा
माँ मैं भी अर्घ्य दूँगा
माँ मैं भी अर्घ्य दूँगा
और हाथ जलपात्र की ओर उठ गए थे
सूर्यदेव को अर्घ्य देने को।
सृजनगीत गाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ
नव वर्ष में हम सृजनगीत गाएँ ।
हर क्षण नया हो हर पल नया हो
सब कोई यहाँ तो सृजन कर रहा हो
सृजन की तो ऐसी धारा बहाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
हरेक व्यक्ति शिक्षु हरेक व्यक्ति शिक्षक
लर्निंग समाज सृजनता का पोषक
अब ऐसा समाज बना के दिखाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ
हरेक हो पूजित हरेक श्रम सम्मानित
न कोई भूखा न कोई हो शोषित
समानता की ऐसी बहार चलाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
न जाति का झगड़ा न धर्मों का रगड़ा
हर जगह हो केवल शांति का पहरा
राजनीति की ऐसी तो गंगा बहाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
हरेक जीव पूरक हरेक है सहयोगी
आजादी हरेक के लिए है उपयोगी
ऐसी आजादी सबको दिलाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
व्यक्ति से ज्यादा समूह जरूरी
स्पर्द्धा से ज्यादा सहयोग जरूरी
संबंधों की ऐसी तो दुनिया बनाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
जीवन का धरती से गहरा है नाता
सृजन ही धरती को स्वर्ग बनाता
धरती पर स्वर्ग ले के तो आएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
पृथ्वी तो है सब जीवों की थाती
इससे ही बचेगा जीवन मेरे साथी
पृथ्वी को कल से बेहतर बनाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
हर मन का अंधेरा भाग गया हो
हर हृदय में एक दीप जला हो
सृजन की दुनिया बनाके दिखाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
सृजन से ही है आनन्दों का नाता
सृजन ही मानव को मानव बनाता
चलो आज मानव को मानव बनाएँ
सृजनगीत गाएँ सृजनगीत गाएँ।
रमुआ से अब राम बना दो
एक विनती तो है ये भगवन
मेरी प्रार्थना स्वीकार करा दो
पैरवी पैगाम जैसे हो
लेकिन रमुआ से अब राम बना दो।
चाह नहीं मैं हलुआ पूरी
मुर्ग मुसल्लम खाकर सोऊँ
पर माँड़ भात साग से हरदिन
मेरे पेट की आग बुझा दो।
चाह नहीं कि सूट टाई से सजकर
घर से बाहर जाऊँ
पर धोती अंगोछा से हरदिन
मेरे तन की लाज बचा लो।
चाह नहीं कि राजमहल के पलंग पर
तोषक गद्दा लगवा ही सोऊँ
पर छोटी कुटिया में हरदिन
पुआल की तो सेज लगा दो।
चाह नहीं मँहगे कपड़े पहन
मुन्ना रोज स्कूल को जाए
पर तन ढ़कने को हरदिन
नीकर कमीज तो दिलवा दो।
चाह नहीं कि नेता बनकर
जनतंत्र को गुलाम बनाऊँ
पर गुलामी की बेड़ी हटवाकर
आजादी का अहसास करा दो।
चाह नहीं सर या जी कहवाकर
अपना महिमामंडन करवाऊँ
पर रमुआ की गाली हटवाकर
मुझको भी अब राम बना दोेे।
मुझको भी अब राम बना दोेे।……………
प्रकृति का रक्षक-कोरोना

बाग में घूमते हुए मिल गए कोरोना जी
छोटे से ठिगने से
एक किनारे चुपचाप दुबके हुए
कौतूहलवश पूछ बैठा
हे विश्व सम्राट
तुम तो विचित्र हो
अदृश्य हो
अविनाशी हो
सर्वद्रष्टा हो
सर्वव्यापी हो
सर्वशक्तिमान हो
पर पता नहीं तुम हो कौन
चुपचाप दुबके बैठे हो
कुछ तो बताओ
तुम कौन हो, कैसे हो
तुम्हारा जन्म कैसे हुआ
किस गर्भ से जन्मे तुम
तुम एक टेस्ट ट्युब बेबी हो
या हो एक डिजाइनर बेबी
खैर जो भी हो
तुम हो एक अद्भुत कृति
लोग मानते हैं तुम्हें एक विकृति
पर तुम तो हो सृष्टि की विशिष्ट उत्पति
जो काम विश्व विजेताओं ने भी नहीं किया था
न तो सिकन्दर कर पाया था और न कर पाया था हिटलर
न गांधी के संदेशोंं ने किया था
न कर पाया किंग की पुकार
जो काम अनगिनत सम्मेलन और समझौतों ने भी नहीं किया
वह काम तुमने कर दिया सहजता से
करा दिया पूरे विश्व का लॉकडाउन
बिना हड़ताल की पुकार से या
युद्ध की ललकार से
न शस्त्र चलाया न तलवार
न अणु बम न कोई हथियार
चीन हो या जापान
अमेरिका, इटली या इरान
इंडिया स्पेन या पाकिस्तान
सबका हेड हुआ डाउन
सब का किया तुमने लॉक डाउन
तुम तो विचि़त्र हो
न ही सजीव हो
न तो निर्जीव हो
मानव तन में ही पलते हो
पर मानव का ही भक्षण करते हो
बीमार बढ़ रहे लगातार
शवों का तो लग गया अंबार
तुम तो गुरूओं के गुरू हो
डंडा के जोर पर अनुशासन सीखा गए
जीने का नया अंदाज सहज ही बता गए
दोस्त दोस्त ना रहा
भाई भाई ना रहा
हाथों से हाथ अलग हुए
होठों से होठ विलग हुए
मुख से मुख भी विमुख हुए
नज़र भी नज़र से बेनज़र हुए
महकों की महक का अहसास घटा
श्वासों का श्वास से विश्वास हटा
तन से तन की दूरी बढ़ी
सम्बंधों की हाय मजबूरी बढ़ी
देशों ने लगाया गति पर लॉक डाउन
तूने तो कर दिया सम्बंधों का ब्रेक डाउन
हे देवों के देव
तुम तो ईश्वरीय वरदान हो
या हो कोई अवतार
तुम तो पृथ्वी पुत्र हो
प्रकृति के रक्षक हो
पृथ्वी की रक्षा हेतु
ब्रह्मास्त्र लेकर आए हो
प्राकृतिक समन्वय बनाने का
जनसंख्या को नियोजित करने का
विकास को सुगति देने का
संकल्प साथ लाए हो
कल कारखाना बंद किया
चक्का सब जाम किया
पृथ्वी को आराम दिया
वायुमंडल को विश्राम दिया
मानव संयमित हुए
जीवन संतुलित हुआ
जानवर स्वछंद हुए
नदी नाले स्वच्छ हुए
तारों को रोशनी मिली
ओजोन के घाव भरे
पेड़ पौधे हरे हुए
प्रकृति प्रसन्न हुई
पृथ्वी की आँखों में चमकी नयी आशा
जीवन की गढ़ी तूने नयी परिभाषा
संयम और अनुशासन बने जीवन का आधार
मर्यादा और समन्वय ही गढ़े लोक व्यवहार
आकांक्षाओंं पर जब होगा नियंत्रण
तभी प्रकृति का हो पायेगा संरक्षण
धरती पर जबसे तुम आए कोरोना
अविरल बदल रहा है जमाना
बदलने लगा अब जीने का सलीका
चमक रहा धरती का कोना कोना
आगत संकट तो क्षण भर का है यारोंं
अगर बदलाव को अपनाया सभी ने
आगे कभी न पड़ेगा किसी को रोना
बदलाव के लिये अब शुरु है मंथन
तुम्हीं इसके कारक बनोगे कोरोना
तुम्हीं इसके कारक बनोगे कोरोना ।